भारत एक ऐसी भूमि है जहाँ कला और संस्कृति न केवल जीवन का हिस्सा हैं, बल्कि धार्मिक, ऐतिहासिक और सामाजिक मूल्यों से गहराई से जुड़ी हुई हैं। इन्हीं गहरी परंपराओं में से एक है उड़ीसा की प्राचीन पट्टचित्र कला, जिसे अंग्रेजी में Pattachitra from Odisha कहा जाता है। यह सिर्फ एक चित्रकला नहीं, बल्कि आस्था, धार्मिकता और ऐतिहासिक विरासत की जीवंत प्रस्तुति है — और वो भी हथेली की पत्तियों पर!
पट्टचित्र क्या है?
‘पट्टचित्र’ दो शब्दों से मिलकर बना है — पट्ट (मतलब कपड़ा या पत्तियाँ) और चित्र (मतलब पेंटिंग)। यह एक प्रकार की स्क्रॉल पेंटिंग है, जो कपड़े या हथेली की सुखाई हुई पत्तियों पर बनाई जाती है। यह चित्रकला उड़ीसा के पुरी, रघुराजपुर और आसपास के क्षेत्रों में सदियों से प्रचलित है।
हथेली की पत्तियों पर भगवानों की गाथाएं
पट्टचित्र कला की सबसे खास बात यह है कि इसमें धार्मिक कथाओं को हथेली की पत्तियों पर खुदाई (etching) करके उकेरा जाता है। कलाकार इन पत्तियों को सुखाकर एक स्क्रॉल फॉर्म में सिलते हैं और फिर उनमें सूक्ष्म चित्र उकेरते हैं — रामायण, महाभारत, श्रीकृष्ण लीला, राधा-कृष्ण, जगन्नाथ जी की कथा आदि को सुंदरता से चित्रित किया जाता है।
यह चित्र न केवल धार्मिक होते हैं, बल्कि उनमें लोककथाएं, पशु-पक्षी, देवी-देवता, और समाज के दृश्य भी देखने को मिलते हैं।
कला की तकनीक और प्रक्रिया
- पत्तियों का चयन: पहले ताड़ या हथेली की पत्तियों को चुना जाता है।
- सुखाने की प्रक्रिया: इन्हें अच्छे से सुखाया जाता है ताकि उनमें नमी न रह जाए।
- जोड़ना: इन पत्तियों को सूत के धागे से जोड़कर स्क्रॉल का आकार दिया जाता है।
- उकेरना: अब बारीक नुकीले औजार से चित्रों की रूपरेखा उकेरी जाती है।
- कालापन भरना: इन रेखाओं में चारकोल या काजल जैसा काला पाउडर भरा जाता है ताकि उकेरी हुई रेखाएं उभरकर सामने आएं।
यह प्रक्रिया अत्यंत समय-साध्य होती है लेकिन परिणाम अद्भुत होता है।
धार्मिक महत्व
पट्टचित्र मुख्यतः जगन्नाथ जी, बलभद्र और सुभद्रा के चित्रण के लिए प्रसिद्ध है। पुरी मंदिर में अनसरा काल (जब भगवान विश्राम करते हैं) के दौरान, पट्टचित्र के चित्र ही दर्शन के लिए उपयोग में लाए जाते हैं। यही कारण है कि यह कला धार्मिक आस्था का प्रतीक मानी जाती है।
पट्टचित्र की कहानियाँ – कला में छिपा इतिहास
हर पट्टचित्र में एक कहानी होती है — एक पौराणिक घटना, एक नीतिकथा या फिर भगवानों के जीवन का कोई प्रसंग। यह कला सिर्फ सौंदर्य के लिए नहीं बल्कि कथा कहने का माध्यम भी है। जैसे:
- श्रीकृष्ण की रासलीला
- राम का वनवास और रावण वध
- महाभारत के युद्ध दृश्य
- दशावतार की गाथाएं
इन कथाओं को चित्रों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाना ही इस कला का उद्देश्य है।
रघुराजपुर — पट्टचित्र का जन्मस्थान
पुरी जिले में स्थित एक छोटा सा गांव रघुराजपुर, पट्टचित्र कला के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है। यहाँ का हर घर एक स्टूडियो है और हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में इस कला से जुड़ा है। भारत सरकार द्वारा इस गांव को “हेरिटेज विलेज” घोषित किया गया है।
आधुनिक युग में पट्टचित्र
आजकल पट्टचित्र सिर्फ स्क्रॉल या पत्तियों तक सीमित नहीं है। अब यह कला फैब्रिक, साड़ी, टी-शर्ट, दीवारों और ग्रीटिंग कार्ड्स पर भी दिखाई देती है। डिजिटल मीडिया के बढ़ते प्रभाव से इस पारंपरिक कला को अब अंतरराष्ट्रीय मंच भी मिल रहा है।
पट्टचित्र कलाकारों की चुनौतियाँ
हालांकि यह कला विश्व प्रसिद्ध हो रही है, लेकिन कलाकारों को आर्थिक और सामाजिक चुनौतियाँ झेलनी पड़ती हैं। कच्चा माल महंगा हो रहा है, और नकली प्रिंट्स ने हस्तनिर्मित पट्टचित्र की वैल्यू को कम कर दिया है। ऐसे में हमें इस कला को सरंक्षित करने के लिए:
- इसे स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए,
- सरकारी समर्थन और स्कीम्स मिलनी चाहिए,
- और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर प्रमोशन बढ़ाना चाहिए।
DIYArtifacts.com की भूमिका
हमारी वेबसाइट diyartifacts.com का उद्देश्य भी यही है कि भारत की हर पारंपरिक कला को डिजिटल माध्यम से दुनियाभर में पहचान दिलाई जाए। हम कलाकारों से सीधे जुड़कर उनकी कहानी, उनकी मेहनत और उनके बनाए चित्रों को आप तक लाते हैं।
निष्कर्ष
उड़ीसा की पट्टचित्र कला सिर्फ चित्रकला नहीं, बल्कि एक पवित्र विरासत है। यह हमारी संस्कृति, इतिहास और धर्म की आवाज़ है, जो हथेली की सूखी पत्तियों पर आज भी जीवित है। जब भी आप पट्टचित्र देखें, उसे सिर्फ एक चित्र नहीं, बल्कि एक कहानी, एक जीवन, एक पूजा मानें।
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