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Dhokra Art का रहस्य: 4000 साल पुरानी धातु कला जो बंगाल और ओडिशा की शान है!

ढोकरा नर्तकी मूर्ति

भारत की विविध सांस्कृतिक धरोहरों में से एक अद्भुत और प्राचीन कला है — Dhokra Art। यह कला न केवल भारतीय परंपरा की एक अनमोल निशानी है बल्कि यह हमें हमारे आदिवासी इतिहास से भी जोड़ती है। 4000 साल पुरानी इस कला का स्वरूप आज भी जीवंत है, खासकर पश्चिम बंगाल और ओडिशा के ग्रामीण क्षेत्रों में। यह कला ना सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में भारतीय पारंपरिक हस्तकला की पहचान बन चुकी है।

Dhokra Art का इतिहास और उत्पत्ति

ढोकरा कला का इतिहास सिंधु घाटी सभ्यता तक जाता है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त प्रसिद्ध ‘नर्तकी की मूर्ति’ इसी ढोकरा तकनीक से बनाई गई थी। यह कला मुख्यतः आदिवासी समुदायों द्वारा विकसित की गई और समय के साथ यह छत्तीसगढ़, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, झारखंड और तेलंगाना में फैल गई।

“ढोकरा” शब्द वास्तव में ढोकर नामक एक जनजाति से लिया गया है, जो सदियों से इस पारंपरिक धातु शिल्प में माहिर है। ढोकरा कलाकार आमतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी इस कला को जीवित रखे हुए हैं।


Dhokra Art कैसे बनाई जाती है?

ढोकरा कला की सबसे विशेष बात इसकी निर्माण विधि है जिसे Lost Wax Casting Method कहा जाता है। इस विधि में निम्नलिखित चरण शामिल होते हैं:

  1. मॉडल तैयार करना: सबसे पहले मिट्टी से मूर्ति का आधार मॉडल बनाया जाता है।
  2. मोम की परत: फिर उस पर मधुमक्खी के मोम की परत चढ़ाई जाती है और उसमें डिजाइन उकेरे जाते हैं।
  3. मिट्टी की कोटिंग: इसके ऊपर दोबारा गीली मिट्टी की परत चढ़ाई जाती है जिससे मोम अंदर कैद हो जाती है।
  4. पिघलाना: इस पूरे सांचे को आग में गर्म किया जाता है, जिससे मोम बाहर निकल जाता है और अंदर खाली जगह रह जाती है।
  5. धातु डालना: अब उस खाली जगह में पिघली हुई धातु (जैसे पीतल या कांसा) डाली जाती है।
  6. सांचा तोड़ना और मूर्ति निकालना: जब धातु ठंडी हो जाती है, तो मिट्टी का सांचा तोड़कर मूर्ति को बाहर निकाला जाता है।
  7. फिनिशिंग: अंतिम चरण में मूर्ति को चमकाया जाता है और फिनिशिंग टच दिया जाता है।

Dhokra Art की विशेषताएँ

विशेषताविवरण
कला की शैलीहाथ से बनी धातु मूर्तियाँ
प्रयुक्त सामग्रीपीतल, कांसा, मोम, मिट्टी
डिज़ाइन प्रेरणाप्रकृति, देवी-देवता, पशु, मानव आकृति
प्रमुख स्थानपश्चिम बंगाल (बांकुरा, बीरभूम), ओडिशा (मयूरभंज, ढेंकनाल), छत्तीसगढ़ (बस्तर)
उपयोगिताधार्मिक मूर्तियाँ, सजावटी वस्तुएँ, गहने

ढोकरा कला की सबसे बड़ी खूबी है कि हर मूर्ति एकदम यूनिक होती है क्योंकि हर बार सांचा तोड़ा जाता है। यानी एक जैसी दो मूर्तियाँ कभी नहीं बन सकतीं।


📍 पश्चिम बंगाल और ओडिशा में ढोकरा का महत्व

पश्चिम बंगाल:
बांकुरा और बीरभूम ज़िलों के गाँवों में ढोकरा कलाकार आज भी पारंपरिक ढंग से इस कला को बनाए हुए हैं। यहाँ के कारीगर देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, ग्रामीण जीवन के दृश्य, जानवरों की आकृतियाँ, आदि बनाते हैं।

ओडिशा:
यहाँ खासतौर पर मयूरभंज, क्योंझर और ढेंकनाल जिले इस कला के प्रमुख केंद्र हैं। ओडिशा की ढोकरा कला को GI टैग (Geographical Indication) भी मिला हुआ है।

इन दोनों राज्यों के कलाकार न केवल भारतीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी इस कला को पहुँचा रहे हैं।


🌐 अंतरराष्ट्रीय मान्यता और व्यावसायिक सफलता

ढोकरा कला आज यूरोप, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में भी सराही जा रही है। भारत सरकार और कई एनजीओ ने मिलकर इन कलाकारों की कलाकृतियों को अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों तक पहुँचाया है।

ऑनलाइन मार्केटिंग:
अब ढोकरा मूर्तियाँ ऑनलाइन वेबसाइट्स जैसे Amazon, Flipkart, Etsy, और IndiaMART पर आसानी से उपलब्ध हैं।


कलाकारों की स्थिति और चुनौतियाँ

भले ही ढोकरा कला को विश्व स्तर पर सराहा जा रहा हो, लेकिन इसके कलाकार आज भी संघर्ष कर रहे हैं:

इन समस्याओं के चलते कई युवा इस पेशे को छोड़कर दूसरे कामों की तरफ जा रहे हैं।


सरकार और NGO की पहल


स्कूली पाठ्यक्रम में ढोकरा कला

सरकार को चाहिए कि वह इस प्राचीन कला को स्कूली और कॉलेज स्तर के पाठ्यक्रम में शामिल करे। इससे बच्चों को बचपन से ही अपने सांस्कृतिक धरोहर से परिचय मिलेगा और भविष्य में कलाकारों की नई पीढ़ी तैयार होगी।


दिलचस्प तथ्य


निष्कर्ष: कला, परंपरा और पहचान

ढोकरा धातु कला भारतीय आदिवासी समाज की रचनात्मकता, भावनात्मक जुड़ाव और परंपरा का प्रतीक है। आज आवश्यकता है कि इस कला को संरक्षित किया जाए, इसे स्कूलों, कॉलेजों और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के माध्यम से प्रचारित किया जाए।

यदि हम चाहते हैं कि भारत की ये सदियों पुरानी पहचान भविष्य में भी कायम रहे, तो ढोकरा कलाकारों को सहयोग और मंच प्रदान करना ज़रूरी है।


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